अजीत द्विवेदी
मणिपुर में तीन मई से इंटरनेट पर पाबंदी है। तभी सवाल है क्या इससे
मणिपुर में हिंसा नियंत्रित करने या शांति बहाल करने में कोई मदद मिली
है? सरकार ने ट्विटर, फेसबुक और अन्य सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स को मणिपुर
की महिलाओं का वीडियो डिलीट करने को कहा। तो क्या उससे वीडियो वर्चुअल
स्पेस से हट गए हैं या उलटे उनका ज्यादा व्यापक प्रसार हुआ है और ये
वीडियो हर व्यक्ति के स्मार्टफोन में पहुंच गए? बिहार में सरकार ने शराब
पर पाबंदी लगा दी। तो क्या बिहार में शराब की बिक्री और सेवन बंद हो गया?
गैर बासमती चावल के निर्यात पर केंद्र सरकार ने पाबंदी लगा दी है। तो
क्या इससे घरेलू बाजार में चावल की उपलब्धता सुनिश्चित हो जाएगी और उसकी
कीमत नियंत्रण में रहेगी? ध्यान रहे पिछले साल गर्मियों में भारत सरकार
ने गेहूं के निर्यात पर पाबंदी लगाई थी फिर भी गेहूं की कीमत बढ़ने की दर
दहाई में रही। इस तरह की पाबंदियों की सूची लंबी हो सकती है। कहीं
प्रदर्शन पर पाबंदी लगा दी जाती है तो कहीं किसी स्टैंड अप कॉमेडियन के
शो पर पाबंदी लगा दी जाती है। हालांकि अविवाहित महिलाओं को ‘खाली प्लॉटÓ
और विवाहित महिलाओं को ‘रजिस्टर्ड प्लॉटÓ बताने की बेहूदगियां पूरी
श्रद्धा और भक्ति के साथ चलती रहती हैं। उन पर पाबंदी लगाने के बारे में
सोचा भी नहीं जाता है।
बहरहाल, पाबंदी लगाने का कोई भी फैसला कामयाब नहीं होता है। यह बहुत गलत
नीति है क्योंकि इससे सिर्फ नुकसान होता है। मणिपुर इसकी मिसाल है।
मणिपुर में तीन मई को मैती और कुकी समुदाय के बीच जातीय हिंसा की शुरुआत
हुई थी और उसी दिन इंटरनेट पर पाबंदी लगा दी गई। ब्रॉडबैंड की सेवा बंद
कर दी गई। इसका नतीजा यह हुआ कि पहले दो दिन तक हिंसा को लेकर कोई खबर
नहीं आई। दो दिन के बाद जो पहली खबर मिली वह 54 लोगों के मारे जाने की
थी। हिंसा शुरू होने के 77 दिन बाद दो महिलाओं को निर्वस्त्र करके घुमाने
और यौन हिंसा करने का एक वीडियो सामने आया। यह वीडियो चार मई का ही है।
इंटरनेट पर पाबंदी के बावजूद यह वीडियो सामने आया और उसके बाद मणिपुर से
लेकर मिजोरम तक तनाव बना हुआ है। अगर इंटरनेट पर पाबंदी नहीं होती तो हो
सकता है कि यह वीडियो पहले सामने आ जाता और तब भी ऐसी ही प्रतिक्रिया
होती, जैसी अभी हुई है। लेकिन इंटरनेट बंद होने का खामियाजा यह हुआ कि
लोग इस घटना की या ऐसी किसी दूसरी घटना की पुष्टि नहीं कर पा रहे थे और
इस बीच अफवाहें फैलाने वालों को मौका मिल रहा था। कुकी और मैती समुदाय के
बीच ज्यादातर हिंसा अफवाहों की वजह से हुई है।
इसलिए कहीं भी इंटरनेट बंद करने की बजाय इंटरनेट के जरिए फर्जी खबर और
वीडियो फैलाए जाने को रोकने की कोशिश होनी चाहिए। पाबंदी समाधान नहीं है।
अगर सरकार बेहतर ढंग से नियमन करे और फेक न्यूज फैलने से रोके तो इंटरनेट
पर पाबंदी की जरूरत नहीं पड़ेगी। लेकिन भारत में इसका उलटा होता है। बात
बात पर इंटरनेट बंद कर दिया जाता है। पिछले साल यानी 2022 में इंटरनेट
बंद करने की 84 घटनाएं हुई हैं, जिनमें से 49 अकेले जम्मू कश्मीर में
हुईं। सोचें, जहां अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद पूरी शांति बहाल हो
जाने का दावा किया जा रहा है वहां एक साल में 49 बार इंटरनेट बंद करने की
जरूरत पड़ी। एक अंतरराष्ट्रीय संस्था की रिपोर्ट के मुताबिक 2016 से 2022
के बीच दुनिया भर में आधिकारिक रूप से जितनी बार इंटरनेट बंद किया गया
उनमें 58 फीसदी अकेले भारत में हुआ। सोचें, लोकतंत्र की जननी भारत के
बारे में!
इसी तरह शराब पर पाबंदी का मामला है। बिहार में कई किस्म के आंकड़ों से
शराबबंदी की सफलता बताई जाती है। इसमें एक आंकड़ा यह है कि महिलाओं के
प्रति और घरेलू हिंसा में कमी आई है। लेकिन एक दूसरा आंकड़ा यह है कि
अप्रैल 2016 में शराबबंदी लागू होने के बाद से लेकर दिसंबर 2022 तक यानी
साढ़े छह साल में बिहार में जहरीली शराब से एक हजार लोगों की मौत हुई है।
यह आंकड़ा ज्यादा भी हो सकता है क्योंकि शराब से होने वाली मौतों को
स्थानीय प्रशासन किसी बीमारी से हुई मौत बता कर आंकड़े छिपा देता है। फिर
भी एक हजार लोगों की मौत के लिए जिम्मेदार शराबबंदी है। शराबबंदी के सख्त
नियम की वजह से लाखों लोग जेल में बंद हैं। अब नियमों में ढील दी जा रही
है लेकिन अब तक काफी देर हो चुकी है। लोगों की मौतों के अलावा समूचे
बिहार में एक सामानांतर अर्थव्यवस्था खड़ी हो गई है-
शराब की तस्करी की अर्थव्यवस्था!
उत्तर प्रदेश, हरियाणा, नेपाल, झारखंड जिसे जहां से मौका मिल रहा है वहां
से गाड़ी में भर कर शराब बिहार पहुंचा रहा है। बिहार के छोटे छोटे बच्चे
शराब की तस्करी में शामिल हैं। शराब के इस धंधे से जो अर्थव्यवस्था बनी
है उसकी वजह से जमीन का कारोबार फल-फूल रहा है और जमीन के कारोबार में
बिहार में जितनी हत्याएं हो रही हैं, उतनी देश के किसी दूसरे हिस्से में
शायद ही हो रही होगी। एक पूरा दुष्चक्र बना है, जिसमें बिहार की पीढ़ियां
बरबाद हो रही हैं। वहां भी पाबंदी की बजाय नियमन पर ध्यान दिया गया होता
तो सरकार को राजस्व का नुकसान नहीं होता, तस्करी और काले धन की सामानांतर
अर्थव्यवस्था नहीं बनती और न इतनी बड़ी संख्या में लोगों की मौत होती।
अभी भारत सरकार ने गैर बासमती चावल के निर्यात पर पाबंदी लगा दी है। इस
फैसले को उपभोक्ताओं के हित में बताया जाएगा लेकिन यह किसान विरोधी भी हो
सकता है। दूसरे इस बात की कोई गारंटी नहीं होती है कि उपभोक्ता को इसका
फायदा मिलेगा ही। गेहूं के निर्यात पर पाबंदी के असर में इसको देखा जा
सकता है। पिछले साल मई में सरकार ने गेहूं के निर्यात पर पाबंदी लगाई थी।
अप्रैल में रूस और यूक्रेन का युद्ध छिड़ने के बाद तात्कालिक प्रतिक्रिया
में यह फैसला हुआ था। इसके बावजूद गेहूं की महंगाई दर दहाई में रही। गैर
बासमती चावल के निर्यात पर पाबंदी का असर पूरी दुनिया पर होगा क्योंकि
भारत सबसे बड़ा चावल निर्यातक देश है। अफ्रीकी देशों पर सबसे ज्यादा असर
होगा लेकिन भारत सरकार का फैसला आते ही खबर आई कि अमेरिका, ब्रिटेन से
लेकर दुनिया के सारे देशों में रहने वाले भारतीय प्रवासी खास कर चावल का
ज्यादा उपभोग करने वाले राज्यों के प्रवासी दुकानों के आगे लाइन लगा कर
खड़े थे ताकि चावल का स्टोर कर सकें। सरकार का यह फैसला एक झटके में पूरी
दुनिया की आपूर्ति शृंखला को प्रभावित करेगा।
ऐसा लग रहा है कि भारत की केंद्र सरकार और उसके पीछे पीछे राज्यों की
सरकारों ने भी पाबंदी को एक नीतिगत हथियार बना लिया है। दिल्ली में
पहलवान जंतर मंतर पर प्रदर्शन कर रहे थे लेकिन वहां पाबंदी लगा दी गई और
उनको हटा दिया गया। बिहार में शिक्षक प्रदर्शन कर रहे थे तो उन पर
लाठियां चलवा दी गईं। कोई भी घटना होती है तो सबसे पहले प्रदर्शन पर
पाबंदी लगती है। फिर इंटरनेट बंद किया जाता है। कई जगह मेट्रो के स्टेशन
बंद कर दिए जाते हैं। लोगों की असहमति के प्रगटीकरण को रोकने के सारे
उपाय किए जाते हैं। राजनीतिक मामला हो, आर्थिक मामला हो या
कानून-व्यवस्था का मामला हो, सरकारों को सबसे आसान पाबंदी की नीति लगती
है। लेकिन यह एक गलत नीति है। सूचना तकनीक की क्रांति और दुनिया के
वैश्विक गांव बनने की परिघटना के बीच पाबंदी किसी समस्या का समाधान नहीं
है, बल्कि कई बार यह समस्या को बढ़ाने का कारण बन सकता है।